अर्थोपार्जन के लोभ ने, मुझे अर्थहीन बना दिया,
साथ ही बुद्दिहीन और नेत्रहीन भी।
अब मुझे न तो दिखाई देता है और न सुनाई,
मुक-बधिर और अंधा बनकर रह गया हूँ।
जीने का क्या यही सही तरीका है?
कि आकाश में उड़ाने की आकांक्षा में,
धरती के योग्य भी न रह जाएँ,
मौत आने से पहले ही, कब्र में पहुँच जाएँ।