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अवकाश / राजेन्द्र प्रसाद सिंह

अवकाश...?
दूर होते जा रहे हम सब परस्पर
किन्तु रहते पास !
दौड़ते ही जा रहे सारी दिशाओं में
समय के अश्व पर अन्धे ;
- यही अभ्यास !
मैं भी और तुम भी और वे भी,
धन्य !!! क्या विश्वास ?
क्यों हो, किस तरह हो और कब
...अवकाश ?
हर खुशामद में ‘बड़ा पहुँचा हुआ-सा’ आदमी,
- हर ओर सत्ता के लिए बेआब,
लगता,-शिथिल, अन्धी गान्धारी को
भुजाभर बाँध लेने को शिखण्डी हो रहे बेताब
फिर भी...
चिमनियों से यह धुआँ, ये वायुयानी बोल,
पॉवर-हाउस के बेचैन फव्वारे उसाँसे धुन रहे;
ये अजगरी-सी योजनाएँ
और मेढ़क-सा नया ईमान;
खोद-खोद पहाड़, चूहे की मिली पहचान !
फ़िल्में ढाई घंटों की, काफ़े तीन घंटों का,
ड्यूटी सात घंटों की,-
क्लब में बॉल-फैन्सी डांस केवल पाँच घंटों का
मगर सच्चे दिलों की आरजू पर-
एक क्षण भी अब...नहीं...विश्वास !
क्या अवकाश...?