अपनी कहता हूँ, मुझको तो बात दूसरों
की कहने का कानूनन अधिकार नहीं है,
लोकतन्त्र का युग है अब तो इधर ऊसरों
पर सुखदायी शीतल धारासार नहीं है,
उधर राजलक्ष्मी न ताकती विभव नहीं है,
जिधर । न पूछो, अजी, बड़ों की बात बड़ी है,
लाख लीख हो जाए तो निस्तार नहीं है,
फूल धूल से रच देने की शर्त कड़ी है,
लोग समझते नहीं — सवारी कहाँ अड़ी है,
बड़े-बड़े मसले हैं, यह करना, वह करना,
सुप्त समुद्री चट्टानों से नाव लड़ी है —
गान्धी-टोपी, राजकाज को सिर पर धरना
सरल नहीं है । सुनता हूँ — कहता हूँ हंसकर
बहकी बातें करो दूसरों को बहका कर !