रूसी लेखक मिख़ाइल बुल्गाकफ़ के उपन्यास 'मास्टर और मर्गारिता' की याद में एक कविता
तहख़ाना
हाँ, तहख़ाना ही था वो
जहाँ वह रहने लगा था
न जाने कब से
एक दिन वह निकल गया बाहर
किसी से मिलने
और पूछने
कि मेरे फूलों का क्या हुआ
कि मेरी चिट्ठियों का क्या हुआ
क्या हुआ मुझे
जो सोचने लगा कि क्या हो गया तुम्हें आखिर
बात क्यों नहीं करती मिलती क्यों नहीं
जैसे बिजली कौंधती है
जैसे अचानक खुला हुआ चाकू लहराता है
जैसे कोई उछल कर आ गया सामने आपके
अचानक
आया वह ऐसे ही हैरान करता हुआ
उन दोनों के पास
वे नादान
झगड़ते रहे बहस करते रहे
वह कहती यह अजीब है
वह कहता ये अज़ाब है
फिर भी उसकी छाया में चलते रहे कुछ देर
यह भी जैसे कितना लम्बा वक़्त था
इसीलिए झट से बन जाती होंगी कहानियाँ
कि साब ! देखो यह है सदियों का प्रेम
और वह तो मैं ही जानता हूँ
या वे ही जानते हैं
नहीं था कोई प्रेम-व्रेम
महज़ चौंकाना और दुखी करना था एक दूसरे को।