एक आग का दरिया
प्रचंड ज्वाला विकराल व्याल
मैं जान कर, अनजान हूँ
उतार नहीं पाया इस चादर को
असित भयानक
अमावस की रात में लिपटा
किसी जल्लाद के वस्त्र की भांति
यह लबादा
जिसके तार बने हैं शोषण के
किनारे बाने हैं प्रताड़ना के
और झालर बानी हैं अनय की
वो तनी है अत्याचारी बादलों की तरह
जिसे यह ढकेगी
वह पनपेगा कहाँ?
साँस भी नहीं ले पाएगा
छटपटाएगा हकलायेगा
और पैर पैर पटक पटक कर
मर जाएगा
कुरथ को चला रहा हैं
इसकी परम्परा ही रही है
कंसीय रावणवंशी
और कलयुगी परिधान में
यह और दर्पित है
यह बटवृक्ष नहीं विष वृक्ष है
पर इसे काटे कौन
सब हैं मौन
तब तो पनपेगा ही