बंधन बन रही अहिंसा आज जनों के हित,
वह मनुजोचित निश्चित, कब? जब जन हों विकसित।
भावात्मक आज नहीं वह; वह अभाव वाचक:
उसका भावात्मक रूप प्रेम केवल सार्थक।
हिंसा विनाश यदि, नहीं अहिंसा मात्र सृजन,
वह लक्ष्य शून्य अब: भर न सकी जन में जीवन;
निष्क्रिय: उपचेतन ग्रस्त: एक देशीय परम,
सांस्कृतिक प्रगति से रहित आज, जन हित दुर्गम।
हैं सृजन विनाश सृष्टि के आवश्यक साधन
यह प्राणि शास्त्र का सत्य नहीं, जीवन दर्शन।
इस द्वन्द्व जगत में द्वन्द्वातीत निहित संगति,
’है जीव जीव का जीवन’,--रोक न सका प्रगति।
भव तत्व प्रेम: साधन हैं उभय विनाश सृजन,
साधन बन सकते नहीं सृष्टि गति में बंधन!
रचनाकाल: फ़रवरी’ ४०