हे सुकुमार!
विधुर-हृदय के एकमात्र धन, शुचि शृंगार!
दीन-दृगों के रत्न-रूप तुम,
चंद्रकांत-उर-द्रव-स्वरूप तुम,
नयन-गगन-विकसित-सित-उडु-सम,
निशा-प्रिय के हार!
परमहंस के प्रमागार हो,
भक्त-प्रवार के प्रेम-तार हो,
बिन्दु-रूप में निराकार हो–
परमेश्वर साकार।
सत्कवि की हे विशद कल्पने!
पुलक-प्रेम-करुणा के सपने!
बने रहो युग-युग दृग-द्वय में,
चिर तप के उपहार!