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आकाशे मँडराते / नईम

आकाशे मँडराते
ठूठों पर बैठे दिन
उग आए आँखों में
रक्तपुष्प थूहर वन।

लम्बी रस्सी छोटी, ओछे दो पड़े हाथ,
रिश्वत के आगे ज्यों वेतन लगते अनाथ;

आशा की बदली
आशंकाओं के पहाड़
आज कुबेरों के घर पानी भर रहे वरुण।

खून पसीना करते, महँगे दिन जुते हुए,
मार से अभावों की चेहरे सब पुते हुए;

भाग्य के भरोसे भी
कबके हो गए धता,
खेत रहे पिता, पितामह गुरुजन।

मृगमरीचिकाओं से, जन ने परिवेश जिए,
सुंदर के सपनों को गुदनों-सा गोद लिए;

बंधुआ के घर अब भी
बंधुआ हो रहे जनम।
ताड़ी जैसे नारे, ठर्रे से आश्वासन।