Last modified on 22 अक्टूबर 2020, at 15:53

आखिरी संस्कार / अरविन्द यादव

वह उँगली जिसे थाम
रखा था पहला लड़खड़ाता कदम
नापने को घर का आँगन

वह कंधे जिन पर बैठकर
देखे थे अनगिनत मेले
न जाने कहाँ कहाँ

वह बाँहें जिन्होंने झुलाया था
झूले की तरह
बिना थके दिन रात

वह आँखें जो चमक उठती थीं
मिट्टी खाते देख अपने भाग्य को
आँगन के कोने में

लहराते मिट्टी के ढेल लगते थे सहारा जिसे
जीवन की साँझ से
अंतिम यात्रा और आखिरी संस्कार के

मिट्टी सने मुख में दिखाई देता था जिसे
उगता सूर्य
अपने सौभाग्य का

वह कमर जो बन गई कमान
उठाते-उठाते ताउम्र
जिम्मेदारियों का वोझ

किन्तु आज उन दौड़ते कदमों से उठती धुंध में
जाने कहाँ खो गए
ख्वाब सब अतीत के

आज उस आँगन में जहाँ गूंजती थीं
उन्मुक्त किलकारियाँ
खड़ी है ऊँची दीवार संवेदनहीनता की

जिसने बाँट दिया है घर का आँगन
नल का पानी
और पेड़ की छाँव

अब होली के रंग और दीवाली के दीप
फाँदकर नहीं आते
ऊँची दीवार

आज उन धुंधली आँखों में
आशा है तो सिर्फ़ उस संवेदना की
जो खींच लाए अंतिम बार
आखिरी संस्कार को