शाम होते ही
नदी किनारे
जब थावरा
चढ़ा चुका होता है
हांडी
भट्टी पर
कच्ची उतारने
किनारे के पेड़ से
लटकना छोड़
नदी के पानी पर
मंडराने लगती हैं
चमगादड़ें
छोटे-बड़े रपटा को
पार करती
उड़ी चली जाती हैं
सहस्त्रधारा की ओर
कई बार तो उससे भी
आगे उड़तीं
पनकव्वों की पंचायत तक
पानी की सतह
को छूते हुए
चली जाती हैं
लगातार हवा में
कभी पानी के ऊपर
तो कभी
सतह पर तैरती हुई
आचमन करते
मंडराती हैं
नर्मदा पर
जिसके दर्शन मात्र से
पाप हर जाते हैं
यह चमगादड़ें दर्शन करतीं
दिन भर
लटकी रहती हैं
किनारे के पेड़ पर
कभी-कभी
मेरे घर के आंगन में
खड़े यूकेलिप्टस के पेड़ पर
भी आ चीं-चीं करती
लटक जाती हैं
जमाती हैं डेरा
रात भर
अलस्सुबह उड़ जाती हैं
चुपचाप या फिर
शोर भी करती हों
तो पता नहीं चलता
गहरी नींद में होता हूँ
उस समय
यह लगभग रोज होता है
फिर भी चमगादड़ों के
पाप नहीं हरते
नर्मदा के दर्शनों से
मुझे तो नंगी आँखों
पता भी नहीं चलता
चमगादड़ें
पाप भी करती हैं या नहीं
शायद तुम्हें पता हो?