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आठवाँ आश्चर्य / रूचि भल्ला

आषाढ़ के जल से भरी हुई हैं
आकाश की आँखें
चाँद घूम रहा है सर पर लिए
आमों की टोकरी
लगा रहा है मौसमी फल का आखिरी फेरा
तारों के होठों से टपक रहा है मीठा रस
धरती सहेज रही है
डाल रही है पेड़ की जड़ों में सरस जल
जानती है एक रोज़ लौटेगा बसंत
रोप रही है उम्मीद का बिरवा
धरती -आसमान की इस हलचल से बेखबर
लंगड़ा हुसैन चल रहा है खुद को घसीट कर
पचहत्तर साल का हुसैन
रिटायर नहीं हुया अब तक
साबुन की टिकिया बेचता जाता है गली-गली
 
हुसैन का भी होगा कोई स्वर्णिम युग
ऐसा ख्याल तो नहीं आता
मोतियाबिंद आँखें दमे का मरीज़
कमर की गठरी दिन भर खींचता रहता है
गिनता है दिहाड़ी के सौ रुपयों को रात में सौ बार
दस के दमकते सिक्के को देखता है
उलट-पुलट कर दस बार
दस की शक्ल में उसे
सोने की गिन्नी नज़र आती है
मैं उसके चश्मे के भीतर से देखने लगती हूँ
उसके ही चेहरे को
जहाँ संतोष नहीं झलकता
सुख उसके चेहरे के कंधे से
टकरा कर भी नहीं गुज़रता
उसका चेहरा तभी बुद्ध और ईसा सा लगता है
मैं साबुन की एक टिक्की खरीद लेती हूँ
चढ़ा सकूँ चढ़ावे में दस रुपए की गिन्नी
हुसैन बतलाता है -
उसका एक बेटा है जो बेचता है लंगड़ा आम
चलाता है कस्बे में दुकान
यह बात मुझे हैरत से नहीं भरती
कि उससे संभाला नहीं जाता लंगड़ा बाप
वह एक आदमी जो जतन से दुकान में
सहेजता है लंगड़ा आम
मुझे हैरत होती है
जो आज कलयुग में भी टूट कर
मुहब्बत करते हैं माँ-बाप से
जब भी ऐसे शख्स मिलते हैं
हुसैन के चश्मे से देखने लगती हूँ
वे लोग मुझे अजूबा लगते हैं
ताजमहल से एक कदम आगे का
दुनिया में आठवाँ आश्चर्य