किस नयन के नीर हो तुम?
याद बनकर जो सताये,
कौन वह बेपीर हो तुम?
ग्रीष्म के इस सजल घन पर
चातकी का ध्यान कैसा?
आज पतझर के विपिन में
कोकिला का गान कैसा?
कसक में अनुभूति भर दे,
कौन वह मृदु तीर हो तुम?
दूर की तुम बाँसुरी हो,
मैं विजन का भ्रान्त राही!
दूर की तुम चाँदनी, पर
मैं कुमुद लघुताल का ही!
अलग रहकर भी बँधा हूँ,
क्या अजब जंजीर हो तुम!
वेदना की आँच में गल
बह रहे हैं स्वप्न कितने!
अश्रु की इस आरसी से
झाँकते अरमान अपने!
अब समझ पाया कि मेरी
ही मुखर तस्वीर हो तुम!
(15.5.48)