बजबजाती नालियों की
सड़ती गन्दगी
तपती दुपहरिया में दहकती सड़कें
कंपाती सर्दियों में बर्फ जैसी राहें
वर्षा के आने पर घुटनों तक कीचड़
उबड़ खाबड़ सडकें
सडकों पर गड्ढे
आते जाते वाहनों के
चालकों की गालियाँ
फटी बनियान
नाम के लिये धोती
सत्तु खा, पानी पी
दौड़ता रहा हूँ, दौड़ता रहूँगा.
सर घूम रहा है
पैरों की नसें
अंगारों सी दहक उठी हैं
सीने पर जैसे कोई हथौड़े
पटकता है
आँखों में गर्म सलाईयाँ
चुभोता है,
पांव डगमताते हैं
पीछे के गठ्ठर से
आती है आवाज
"अरे जल्दी कर न"
जैसे मारा हो घोड़े को
चाबुक,
फिर दौड पड़ता हूँ.
अब तो लगता है कि
कुछ दिनों में मैं
घोड़ा बन जाऊंगा
घास खाऊंगा
और हिनहिनाउंगा.
(प्रकाशित - फरवरी १९७९, विश्वमित्र कलकत्ता)
कविता को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि कलकत्ता में साइकिल रिक्शा नहीं होता था- चालक पैदल खींच कर चलाता था. कुछेक इलाकों में "बैन" के बावजूद अभी तक चलते हैं.