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आत्म हत्याएँ / अखिलेश श्रीवास्तव

प्रेमपत्रों में तुमने बसीयत लिखी
सोने के कर्णफूल माँ के हाथ धर देने की इच्छा की
देह को सौंप दिया जाये अग्नि को
किताबें और बस्ते छोटी बहन को मिले
और आत्मा ईश्वर की खोज में न निकले
वह मिल कर एक हो जाये तुम्हारी आत्मा से।

मन ने बिसार दी सब स्मृतियाँ
देह भस्म हुई तो बस चिर लुभाता प्रेम बचा
आत्मा की ओठों पर तिल-सा लगा हुआ।

मेरा तुम्हारे देहरी तक पहुँचना
कपाट का बंद पाना
और फिर लौट आना किसी देह में

रस्सी फेंक कर
कपाट बंद कर लेने वाला प्रेम
चाहता है कि मुक्त हो जाऊँ इस बंधन से
एक देह के इस कदर आध्यात्मिक हो जाने से
प्रेम अंधा नहीं रह पाता
और सब देखने लगता है चौकन्ना होकर

प्रेम का प्रकट होना
बहुत-सी बुराइयों के अदृश्यता का समय है
पर प्रेम धारण करने के लिए
देह, मस्तिष्क या आत्मा की नहीं
एक मन की आवश्यकता है
जो कही हो तो बात बने।

पश्चिम ने नकार दिया है मन का अस्तित्व
और पूरब है कि टिका है इसी के भरोसे।
अगर मान ले बात
तो प्रेम के रस्सी से होने वाले हजारों आत्म हत्याओं से बच सकता है।