Last modified on 22 अगस्त 2009, at 14:13

आदमी रोज़-रोज़ / केशव

वह जिस रास्ते से दफ़्तर जाता है उसी से
बाज़ार मंदिर नदी किनारे यहाँ तक कि
प्रेमिका के घर भी किये हुए को कर
नज़रअंदाज़ जो है ही नहीं उसके लिए
जूझ रहा है लगातार
यह मौत जो रोज़-रोज़ आती है कोई
चिन्ह नहीं छोड़ जाती उसकी सफेद
कमीज़ पर न उसकी आँखों की को
अंधेरी गलियों में रोशनी की कोई किरण
हासिल न होने पर कुछ गले में फँदा
डालने को खुद को देता है धमकी
पर ऐसे वक्त में सड़क पर देखी हुई
छातियों के सिवाय कुछ नहीं होता उसके
आस-पास या उसका मन होता है कि
पत्नि से अपने फटे हुए कोट का करे
ज़िक्र या एक चक्कर में देख आए
सिनेमा घरों के पोस्टर
दिन-भर वह भागती सड़कों के पीछे
भागता रहा पर सड़कें निकल गईं
उसके हाथ से और चीज़ें जिनके बारे
में उसने कितनी बार बदले फैसले
जो भी शब्द होठों पर आए उनका
खुलकर प्रयोग क्या अपनी हालत
को और भी दयनीय बनाने की कोशिश
में फँसा अंत में उधार की बीड़ी
सुलगा एक अँधेरी गली में हो
गया दाखिल उसको रोकना अब
नामुमकिन है
आप परेशान न हों
न झूठ बोले अपने लिए या उसके लिए
वह अब नहीं मिलेगा कहीं भी वह
अपने रास्ते पर चलने का हो गया हो
अभ्यस्त