कौन कहता है
प्रलय होता है मन्वन्तरान्त में
कहता हूँ मैं
वह हो रहा इसी क्षण में
पूरक श्वास ही तो है आरम्भ सृष्टि का
रेचक में है घटित प्रलय प्रतिपल
कुम्भक ही है सकल सृष्टि विस्तार निरन्तर
जिया है जीवन ने कितने ही प्रलयों को
कितने ही मन्वन्तर मैं ने काटे हैं
पर जो मनु है
वह तो उत् आसीन है
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर,
जहाँ व्यापता प्रलय जहाँ नहीं सृष्टि है
बिन्दु-चरम वह वही सनातन दृष्टि है
वाणी-मन-बुद्धि हांफ गये
प्राणों के अन्तर कांप गये
वो हांफ गये
और हांफ के जब वह अन्दर ठहरे
भीतर ओर भी उतरे गहरे,
तो गह्वर में उस अक्षर के
देखे प्रकाश उर-अन्तर के
वो मनु जो दिखता था उत्तु़ंग
वो था जन्मों से मेरे संग
और था मुझमें मुझसे भी निकट
उस नित-असंग के संग में रहकर
होकर विस्मित देखा
नहीं थी सृष्टि, नहीं था प्रलय
बस एक सनातन लय
बस एक सनातन लय