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आधुनिकता / नरेश अग्रवाल

ये कितने ही अनजाने चेहरे
जिन्हें हम देखते हैं रोज
कितनी ही बार उनके पास से गुजरते हैं
कभी साथ भी बैठ जाते हैं
सफर में
लेकिन हममें दूरियां हैं
नीचे से ऊपर तक की
दूरियां सपने और वास्तविकता जितनी ।
सभी का मिलन संक्षिप्त होता है
टुकड़ों-टुकड़ों में बनते-बिखरते संबंध
और सांसों का प्रयास
कि जल्दी ही हम अपने काम पर पहुंचें।
किसी ने गिरे हुए आदमी की मदद की
यह उपकार थोड़ी देर में खत्म हुआ
और भूल गए लोग सारी गाथा।
एक कहानी से कुछ सबक लिया गया
फिर वो किताब खुली ही नहीं वर्षों तक।
दिन के उजाले कितने ही प्रकाशित कर दें
कितनी ही सारी चीजों को
आधुनिकता हमें बहुत कम देर ही
ठहरने देगी उस छोर तक।
प्यार से देखता हूं एक पल इस तोते को
मुस्कान से वो चोंच खोल देता है
मेरी खुशी को वो देखे
उससे पहले ही मैं उससे दूर चला जाता हूं।