मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!
सौ उसाँस पर एक साँस की नागन बार-बार आने दो।
गोदी में लो, कान उमेठो,
गले लगाओ, शत शिर डोलें,
पर वीणा में आँसू-सा असहाय न तुम उतार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!
वे कहते हैं, मिजराबों की
मारों में उतरो गीर्वाणी,
मैं कहता हूँ लय से ध्वनि तक झंकृति का उभार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!
सूजी से सिर छेद-छेद कर,
गूँथो फूल, हार दो रानी,
तुम इतना दो घना कि घन यह कह न पाय खुमार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!
तेरी उनकी प्रीत पुरातन,
युग-युग, बोल-बोल कर डोले,
घनश्याम उतरे गोकुल में, जमुना में बहार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!
तोड़ चलो ’नवघा’ की कारा
शतघा उतर उठो ओ रामा!
गायें, ग्वाल, नंद, नँदरानी सबको एक बार आने दो।
मत रूठो ओ भाव-रंगिनी, स्वर पर कुछ निखार आने दो!
रचनाकाल: खण्डवा-१९५३