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आपां / ओम पुरोहित कागद

‘‘मैं‘‘ अर अपणायत रा
अै चौगा पै‘रणिया आपा
अब भोत स्याणा होग्या हां
अब आपां
आपरै मै रो चौंगो
उतार‘र
इती ऊंची खूंटी उपर
टंाग दियो है
कै उण स्यूं
आपां खुद
भोत नीचा रै‘ग्या हां।
म्हे
थे
या कोई और
चावै
किता‘ई
पग पटकां
आपरै ‘‘मै‘‘नै
ना तो लख सकां
अर
ना लग सकां
खाली देख सकां
आगै जितै
ऊचै टंग्यौडै़
आप रै ‘‘मै‘‘नै
अर
मै री मनकार नै।
आपां
ऊपर देखता,देखतां
अपणायत नै
उतार‘र
टप देणी
नीचै नाख दी
पगां मांय
अर
इती खूंदी हां
इती खूंदी हां
कै उण री
किरची -किरची
पगथळयां रै मांय
पाधरी होय‘र
चिपगी
खतम होयगी
अब आपा नै
कतै‘ई डर नी है
क्यूं कै
बा अब पाछी
जलम जाम नी सकै।
‘‘मै‘‘ऊपर लो चौगो
अर
अपणायत नीचलो ।
नीचलो
सफा नीचो है
ऊपर लो भोत ऊंची
अब आपां
सफा नागा हां
नागा तड़ंग।