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आह...! / कविता भट्ट

  
आह! रहस्य उद्घाटित किया
पढ़ा-रटा-गाया-जिया
निरंतर तुझे ही जपा
सहमति में सिर हिलाया
तेरे निर्देश पर हमेशा
तुझे सराहा- सहेजा
जो तुझे अच्छा लगा
मन मारकर भी सदैव
श्रम करके वही किया,
धारा के विपरीत भी बही
संघर्ष करके दूसरे तट पर
पहुँचने के आकर्षण ने
मुझे तैराकी सिखा दी
तू मुस्काए इसके लिए
रोई हूँ रातों को जागकर
तेरी राहों में फूल बिछे रहें
अस्तु! मुकुट काँटों का पहन
साहस से बढ़ी कंटकपथ पर
तेरी शरद वासंती हो सके
इसलिए हिमयुग सहे मैंने
गंधमादन की शीतल पवन से
आनंदित और सुगंधित हो तू
इसलिए मैं जेठ की दुपहरी
अंगारों पर चली अथक
तू शांति से छप्पन भोग खाए
इसलिए मैंने ऊसर भूमि जोती
रक्त - स्वेद बहाया पानी जैसे
बादल वर्षा में रूपांतरित हो सकें
इसलिए दुःख में भी मैंने
मुक्तकंठ राग मल्हार गाया
तेरे आँचल में भरे रहें
स्वर्ण, रजत, कीर्तिधन
इसके लिए मैं दर - दर
बनी रही परिचारिका
दो चार मुद्राओं के मोह में
यांत्रिक तेरी परिपाटी को
आत्मभाव से अपनाया मैने
एक अकिंचन के जैसे
अचंभित खड़ी हूँ आज
रातों को निर्जन वन में
मेरी गगनभेदी चीत्कारें
महत्त्वाकांक्षाओं वाले
वैकुंठलोक के सोपानों पर
आरूढ़ होने को हैं आतुर
आकाशवाणी हुई कि
निराशाओं के गृहनगर से
एक सँकरी सी गली
प्रेमनगर को भी जाती है
किंतु मानव समाज कहता है
यह प्रतीति मात्र है
वस्तुतः ऐसा नगर
नींव के लिए निरंतर
संघर्ष कर रहा है।

ओ मेरे प्यारे जीवन!
यातनाओं-पीड़ा की पराकाष्ठा
तूने उपहार में दी जीभर
यक्ष प्रश्न यह है कि
यह सब सहकर भी
तेरे अधीन रहकर भी
पता नहीं क्यों ?
मैं अब भी तेरे व्यामोह में हूँ;
तू है, फिर भी उहापोह में हूँ।
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