आप जानते हैं
आजकल मैं
घर की दीवारों से
रोशनदान और गलियारों से
क्यों बात करती हूँ
क्योंकि मैं अपनी पीड़ा के
असह्य बहाव को सहने की
शक्ति जुटाती हूँ
जानती हूं
ऐसा करके मैं
अपने शरीर को
उस पीड़ा के
लायक बना रही हूं
जो शायद मेरी नियति में
गहरे पैबिस्त है
एक फल की तरह
पहले पीड़ा की कली आई
फिर फूल खिला
फिर फल आया
और पीड़ा के फल को
पकने में जितना समय लगा
उसमें मेरी एक तिहाई
जिंदगी गुजर गई
अब मैं हूं और पीड़ा में
जीने की मेरी आदत है
और जीवन की संध्याबेला
जो अपने मोहक
सुनहले रंग से
इंद्रजाल रचकर
मेरे अंदर जीने को
ज़िन्दगी मान लेने का भ्रम
पैदा कर रही है।