Last modified on 29 दिसम्बर 2010, at 05:00

इक सुबह / मनविंदर भिम्बर

इक सुबह
मेरे आँगन में आ गया
इक बादल का टुकड़ा
छूने पर वो हाथ से फिसल रहा था

मैंने उसे बिछाना चाहा
ओढ़ना चाहा
पर
जुगत नहीं बैठी
फिर
बादल को न जाने क्या सूझी
छा गया मुझ पर
मैं अडोल सी रह गई
और समा गई बादल के टुकड़े में

पता नहीं
किस टुकड़े को ओढ़ा
और कौन सा बिछ गया
मैं सिर से पाँव तक
नहा गई

ये रहमत थी
या उसने उलाहना उतारा