हर कोई चुनता है
अपनी सुबह, दोपहर और शाम
या कि
सुबह, दोपहर और शामें
उसे
समय के हलक में अटके इस सवाल पर
कोई सदियों शोध करता है
मन के मनके फिरते-फिरते
समन्दर रेत में बदल जाता है
और
नीलम रातें,
शफ़्फ़ाफ़ सुबहों में
ज्यों
चैत, सावन,
वसंत, आषाढ़!
रीतती नदियों के बीच
अक़सर
उभरी सीख की पगडंडियाँ कईं
पर जाना बूझ-बूझ
कि सब अबूझा यहाँ!
रहा सार यही
कि असार-संसार
जो है यहाँ वह नहीं कहीं!
और जो है, वो!
न इति
न इति
न इति!