एक पर एक पर एक
सारे आकर्षण मरते चले गए
हम जिन्हें दर्द का अभिमान था
भद्दी दिनचर्या से
अपने क़ीमती घाव
भरते चले गए
हमारा सब अनिर्णीत छूट गया
उस नक्षत्र की
तरह जो-
भरी दोपहर में टूट गया
एक पर एक पर एक
सारे आकर्षण मरते चले गए
हम जिन्हें दर्द का अभिमान था
भद्दी दिनचर्या से
अपने क़ीमती घाव
भरते चले गए
हमारा सब अनिर्णीत छूट गया
उस नक्षत्र की
तरह जो-
भरी दोपहर में टूट गया