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इन्द्रजाल / महेन्द्र भटनागर


ये खड़े किसके सहारे ?
है नहीं सीमा गगन की मुक्त सीमाहीन नभ है,
छोर को मालूम करना रे नहीं कोई सुलभ है !
सब दिशाओं की तरफ़ से अन्त जिसका लापता है,
शून्य विस्तृत है गहनतम कौन उसको नापता है ?
टेक नीचे और ऊपर भी नहीं देती दिखायी,
पर अडिग हैं, कौन-सी आ शक्ति इनमें है समायी ?
खींचती क्या यह अवनि है ? खींचता आकाश है क्या ?
शक्ति दोनों की बराबर ! हो सका विश्वास है क्या ?
जो खडे उनके सहारे !
ये खड़े किसके सहारे ?