Last modified on 16 दिसम्बर 2013, at 16:59

इन्सोम्निया / प्रदीप जिलवाने

मैं चाँद के थके हुए चेहरे को देखता हूँ
और देखता रहता हूँ देर तक
कभी झुँझलाकर जो हाथ बढ़ाता हूँ सितारों की ओर
मेरे हाथ आते हैं, महज टूटे हुए बटन कुछ

रात! मैं तेरा कोई गुनहगार तो नहीं

मैं अपनी अस्थियों में जमी किसी पुरानी शर्म में गड़कर
स्मृतियों के ऐसे दावानल में पाता हूँ खुद को
जहाँ आकाश असंभव नहीं होता और
धरती के लिए वापसी का कोई रास्ता नहीं

रात! मैं तरसता हूँ तेरे लिए

सप्तऋषियों को आते हुए देखता हूँ
ठीक अपने सर के ऊपर
फिर इशान की ओर लौटते हुए धीरे-धीरे
मैं गवाह हूँ इसका वे कभी लौट नहीं पाते,
लौटने से पहले अगवा कर ली जाती है
उनके हिस्से की मामूली-सी रोशनी भी

रात! मैं तरसता हूँ तेरे लिए
और तेरे व्यर्थ खो जाने पर रोता भी नहीं।
(नींद न आने की बीमारी)