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इल्ज़ाम / कुमार विकल

सबसे पहले जो उँगली उठी

वह उस आदमी की थी

जिसने मुझे जंगल में लगी आग को दिखाया था.

और यह भी बताया था

कि यह आग किसने लगाई है

और एक जंगल से दूसरे जंगल तक

कितने ख़तरनाक रास्तों से हो कर आई है.


मैं जब रात के अँधेरे में

आग की ख़बरें शहर की दीवारों पर लिखता था

तो उसकी कविताएँ कंदीलों की तरह

अँधेरे रास्तों में जलती थीं.


मैं समझता था कि कविता लिखना

ख़बरें लिखने से बड़ा काम है

और वह आदमी सचमुच महान है

जो अपनी कविताओं में ख़तरनाक ख़बरें सुनाता है

और ‘अभिव्यक्ति के ख़तरे’ उठाता है.


हाँ, वह आदमी सचमुच महान है

जिसने मुझपर इल्ज़ाम की उँगली उठाई है

कि मैं डरपोक और कायर हूँ

कि मैं आग को शहर में

चोर दरवाज़े से लाया था

और किसान मज़दूर बस्तियों में पहुँचने से पहले

बड़े बाज़ार के ख़तरनाक रास्तों से हो कर नहीं आया था

मैं इतिहास के कठघरे में एक अपराधी हूँ

कि मैंने अपने आपको ख़तरनामक रास्तों से बचाया है

और एक बहुत बड़ी आग को

एक वर्ग के तंग घेरे में जलाकर बुझाया है

वरना यह आग—

बीच शहर में पहुँच सकती थी

और पूरे शहर का नक्शा बदल सकती थी.


उठी हुई उँगली का इल्ज़ाम मुझे मंज़ूर है

लेकिन जनाब!

आप जानते ही थे

मैं आग को इस वर्ग के लिए ही लाया था

और आपने भी तो इसका बहुत हिस्सा

कविता के चोर दरवाज़े से

अपने वर्ग के किए ही चुराया था.


मैंतो अब भी यह आग

अपने वर्ग के लिए ही लाऊँगा

लेकिन अब—

चोर दरवाज़ों से नहीं

ख़तरनाक रास्तों से हो कर आऊँगा.