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ईश्वर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'

खुले-बन्द मैं लिखता हू बजो, बजो!, यह खुला छन्द हू बजो, बजो!,
भुजा उठाकर कहता हू बजो, बजो! मैं!
कोटि-कोटि पापों, अपराधों, अन्यायों के,
अपमानों, पैशाचिकताओं, अपघातों के,
क्षण, मुहूर्त्त, घण्टे तुम ईश्वर!
तुम्हीं नियम, कारण हे पापी-पामर!
तेरी गज-भर की छाती पर मूँग दलूँगा!
क्योंकि तुम्हारी मर्जी से ही सब कुछ होता।

आँखें जो दिन-रात देखतीं मेरी,
खुश्की के लद्धड़ घड़ियालों के जबड़ों से,
बर्बर क्लेदलिप्त शोषण के फ़ौलादी पंजो से,
झोंपड़ियों में रहनेवाले,
कंगालों का गला दबाया जाना,
पाशवता की दुर्गम असिधारा पर,
नंगा नीच हवस का बढ़ना;
बेरहमी से-बेदर्दी से,
क़त्ल किया जाना बुड्ढों, बच्चों का,
जनवादी प्रिय मानों का शासन में बँधना;
और हज़ारों जनगण का सेलों में गँजना!
ये सब तेरे ही उत्प्रेरण के तो फल हैं!
क्योंकि तुम्हारी ही मर्ज़ी से सब कुछ होता।

जनगण के मानस में विष को बोनेवाले!
रूढ़ि-रीति के इन्द्रजाल हे रचनेवाले!
भला करूँ क्यों मैं संकीर्तन, ध्यान?
कहो पढ़ँू क्यों वेद और कुरआन?
मैं अपने दाँतों से खाता,
अपने ही कानों से सुनता,
तो मैं अपने ही विवेक से क्यों न काम लूँ?
कही-सुनी यह बात नहीं है,
मैं कहता हूँ आँखों देखा;
तुम्हें दूरदर्शक में मैंने देख लिया है!
आया है विज्ञान,
आज जग का करने कल्याण।

देख रहा हूँ मुल्लाओं की महकी हुई लटों में,
बाबापंथी सन्तों के रोली-चन्दन में;
जिनकी आँखों में मुस्काते शैतान पाप,
जिनके उर में ईंटें, मुँह में अल्लाह, राम।
चल जाते जिन पर इनके वशीकरण जादू,
वे भी बाबा, जैसे ये हैं,
वैसे वे भी हो जाते हैं।
जेसे ये उम्दा सुर्ख़ सेब-से-रंगीले,
हे ईश्वर, तेरी पाक याद में मोटे हैं!
वैसे वे भी हो जाते हैं।
ये हैं तुझमें, इनमें तुम हो,
तुम्हें दूरदर्शक में मैंने देख लिया है!
अब न बचोगे, तुम न रहोगे!
यह तो पहली ही फेरी है!
मेरी आँखों में है बसता असगुन,
ध्वंस अमंगल वक्र शनिश्चर!

बड़े घुमाव-फेर दे रक्खे तुमने!
नाचा तुम करते सिक्के की खनकारों पर!
जैसे अठोत्तरी मालाओं के दाने,
बगला भक्तों की उँगली में!
जान तेरे कितने ही प्रतिनिधि, मैनेजर,
मन्त्री, नौकर-चाकर और मुलाज़िम।
सुनो! कौन वे?
परम्परा के मेले गट्ठर सिर पर लादे;
सम्पादक, कवि, लेखक।
राजनीति की जन्तुवाटिका के गेरिल्ले;
अटली, च्याड. और नेहरू।
कानूनी पशुशाला के लंगूर,
जज, वकील, बैरिस्टर और मुहर्रिर।
मुँह खोले बैबून भयंकर,
पेशकार, मुंशी, पटवारी!
दारोग़ा, खुर्रांट सिकन्दर कुत्ते!
परिचय जिनसे हो जाता है थानाओं में,
कठघेरों में, कचहरियों में!
भूपति और महंत, महाजन,
गँठकतरे, गुर्रानेवाले गिब्बन!
जिनसे पिण्ड छुड़ाना मुश्किल,
खड़े तुम्हारे मेरुदण्ड पर जो हैं!
बेकारों के खालीपन हे रुदन-भर-स्वर!
बड़े घुमाव-फेर दे रक्खे तुमने!

जहाँ देखता जल-ही-जल है,
पर पीने को एक बूँद भी नहीं मयस्सर!
प्यासा मैं हूँ, मैं भूखा हूँ,
प्यासे मेरे जबरजंग हैं बैल!
दुपहरिया में भूखे मेरे लाल साँवरे छैल!
तेरे इस विराट सागर को मैं पी लूँगा!
तेरी इस विराट गागर को मैं फोड़ूँगा!
तेरे मीठे अमृत-कुण्ड के जो रखवाले,
ज़हरीले मणिधर तक्षक हैं!
उनके वक्र विवर को फालों से जोतूँगा!
मैं कमकर, दृढ़कर हलधर हूँ!

व्यर्थ लटकनेवाले थन हे बकरे की गरदन के!
तुम न रहोगे, नहीं रहेगी,
छीना-झपटी, धींगाधींगी, चोरी
बेकरी, बदकारी, सीनाज़ोरी;
दाढ़ी, चोटी, भेद-भाव की महल-अटारी
कायरता की छुरी-कटारी, ठगी और मक्कारी!
तुम न रहोगे अल्पप्राण हे ईश्वर!
किन्तु, रहोगी आग पकाती मेरी रोटी!
और रहेगा प्यास बुझाता पानी!
यों ही बिना रुके ही,
हवा खींचती सदा रहेगी पंखा!
ठंडक पहुँचाएगी साँसों-द्वारा!
पहले सी ही जैसी-की-तैसी ही मेरी धरती,
देगी उगल-उगल कर मोती, सोना!

शेखचिल्लियों और अमीरों के हे नखरे!
नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी प्यारी ज़न्नत!
नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी स्वर्ग विधाता!
हिन्दू-मुसलमान दोनों ही लड़ कर,
भेजा करते एक दूसरे को दोज़ख में,
और नरक में।
फिर ये ज़न्नत और स्वर्ग हैं कहो बने क्यों?
नहीं जहाँ हैं अश्रु, दुःख की पीड़ा ममता,
संवेदना, हृदय की विह्वल करुणा!
नरक-तुल्य उस दिव्य लोक में मैं न रहूँगा!
मैं मानव हूँ और रहूँगा होकर मानव;
जात-पाँत, मत, धर्म-पन्थ तज;
अपने ही इस मर्त्यलोक में।
हँसते मृदुभाषी परिजन-पुरजन-स्वजनों में,
गोबर से यह लिपा-पुता मेरा घर-आँगन,
पर्ण झोंपड़े शोभन;
जिन पर लौकी की बेलों मंे फूल दूधिए।
क्या न तुम्हारे दिव्य धाम से बढ़कर?
तेरे नन्दनकानन से भी ज़्यादा सुन्दर!

(रचना-काल: जनवरी, 1949। ‘नया समाज’, मई 1949 में प्रकाशित।)