ईश्वर !
सोचता हूँ,
तुम्हारे ख़िलाफ़ बगावत का एक परचम
बुलंद करूँ ।
संपूर्ण तुम, तटस्थ तुम, निर्लिप्त तुम,
सबके निर्माता सबके नियंता ।
मेरे अधूरेपन पर उठी हुई उँगली तुम ।
तुम उन अंशों में हो, जहाँ हम नहीं हैं ।
हमारे भीतर उपजे हुए डर तुम ।
हमारे तमाम डरों में सहचर तुम ।
मेरे आकार की सीमा तुम्हारे निराकार से आहत होती है प्रभु ।
सभी कर्मों से विरत तुम ।
सभी परिणामों से परे ।
सभी तृष्णाओं से ऊपर तुम,
सभी तृप्तियों से निष्काम ।
तुम्हारे होने का भाव
वह अंधकार है
जो हमें घेरता है बार-बार ।
हमारी आस्था नहीं
हमारी आस्था का कच्चापन
तुम्हें टेरता है बार-बार ।