आकाश से आकर सुन पड़ती
गुनगुनाहट के नहीं
धूप जैसा खुलने की
अकुलाहट के
कविता कान पकड़ उठती है
ज़रूरत पर दौड़ती-दौड़ाती है
आते हुए कल को
पहले से सिखाती-दिखाती है
अँधेरे में
बस टूटते तारे की तरह
दौड़ पड़ता हूँ
नीचे ज़मीन में
अपनी जड़ों तक उतरता हूँ
तब हर बार
शब्दों की साँसें पाकर
नया जीवन
शुरू करता हूँ
जब कविता कान पकड़ उठाती है ।