नौदुर्गों की साँझ में गली के छोर से आती थी
विह्नल करती चौपाई-गायन की आवाज़
सोरठे तक आते-आते गहराने लगती थी रात
जीवन खड़ा हो जाता था रँगमँच के आगे
रास्तों में मिलते थे झरे हुए फूल
चितवनें, वाटिकाएँ, छली, बली, मूर्च्छाएँ
और उन्हीं के बीच उठती पुत्र-मोह की अन्तिम पुकार
नावों, जँगलों, गांवों और पुलों से होकर गुज़रते थे
राग-विराग, ब्रह्मास्त्र और वरदान के बाद के विलाप
लेकिन नहीं खेली जाती थी अश्वमेध की लीला
जो अब उत्तर-कथा में खेली जा रही है दिन-रात
जिसे कलाकार नहीं, बार-बार खेलते हैं वानर-दल
गठित हो रही हैं नई-नई सेनाएँं
रोज़ एक नाटक खड़ा हो जाता है जीवन के आगे ।