लहरीला पिघला सोना
झरने पर तिपहर की धूप
मुगा रेशम के लच्छे
डाल बादाम की फूलों-लदी
बसन्ती बयार में।
पारदर्श पलकें।
और आँखें? सब-कुछ
उन में कहा जाता है-
वे कुछ नहीं बतातीं।
‘आत्मा की खिड़कियाँ।’
घर में जब शहर बसा
कौन-सी दीवार के पार
झलकेगा कैसा रहस्य?
झटक कर सिर वह हिलाती है
और उग आता है
पटसन की बदली में
रँगा-पुता पन्नी का चाँद।
उत्सव मनाओ! बह जाओ!
लहरीला पिघला सोना...
हाइडेलबर्ग, 1 फ़रवरी, 1976
यूरोप और अमेरिका के कैथोलिक समाज में वसन्तकालीन उपवास (लैंट) से पहले एक उत्सव मनाया जाता है जिस में लोग चेहरे पहन कर या यों ही सज-धज कर जुलूस निकालते और रंगरलियाँ मनाते हैं। इसे कार्निवाल या कभी-कभी केवल ‘उत्सव’ (फ़ेस्ट, फ़ाशिंग) भी कहते हैं। उत्सव-दिवस के जुलूस की एक पिंगलकेशी युवती इस कविता की निमित्त थी।