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उद्धव विषाद / अमरेन्द्र

प्रेम के परस से ही ज्ञान-छुईमुई मंद
ज्ञान का अनल शीत प्रेम के सलिल से
विरह व्यथा को देख उधौ के सुज्ञान उड़े
उड़े ज्यों सघन घन प्रबल अनिल से
सावन सघन घन में ज्यों उधौ मंद-मंद
उनकी हुई है हार माने आज दिल से
विपदा-विपदा हरो गोपी की गोकुल आ के
प्राणों की ही भीख माँगे भुवन निखिल से l

कितना कठोर श्याम काँप उठूँ लेते नाम
कैसे ये गोकुल ग्राम तुमने भुलाया है
गोपी की अतुल प्रीति बालू की नहीं है, मीत
कान्ह ये पुनीत ब्रज कैसे विसराया है
विरह-पिंजर बँधी बेकल चिरई गोपी
कितना कठोर हिय तुममें समाया है
वन-धेनु-गोपी-कंुज सब ही बुलाए तुम्हें
कूल या कदम्ब तुम्हें कहाँ भूल पाया है ।

हाय ये विहाय ब्रज बसे हो कन्हाई वहाँ
माणिक से मुख मोड़ पाहन उठाए हो
कालिन्दी के कूल भूल, फूल से मोहक कुंज
कदम्ब-करील छोड़ सौध अपनाए हो
प्रणय पुजारिन की हालत गंभीर अति
कामिनी पराई संग रास को रचाए हो
वसुधा के वदन पे स्वर्ग के समान यह
घायल गोकुल को तू नरक बनाए हो ।

आस औ विश्वास पर जीती सब गोपिन हैं
कभी तो हमारा प्यारा नंदसुत आयेगा
जो न आए कान्ह तुम सच कहते हैं हम
त्रिलोक-त्रिकाल में विश्वास उठ जायेगा
मानेंगे महत्ता-सत्ता कुछ न तुम्हारी, जीव
जाना जो, सकल विश्व प्रीति ठुकरायेगा
घायल चकोरी-दुख दारुण शशांक विन
मरी, तो वो मथुरा भी अंगुली उठायेगा ।

मौन रसना को किए मुझको सताओ नहीं
कहीं छाती मेरी उधौ हाय फट जाए न
भूमि सूख जायेगी ही अगर न आए घन
जलेगी, पुकारे न, विश्वास हट जाए न
चातकी रहेगी नहीं स्वाति को भजेगा कौन
दुनिया के दिल से ही नाम कट जाए न
विनती हमारी उधौ श्याम से कहेंगे यही
घायल आए न आए, नेह छुट जाए न ।

पकड़े चरण-कंज राधा के, उपंगसुत
नीर से नयन के चरण को भिगाते हैं
उज्ज्वल सरोज पे ज्यों मौन हो मधुप एक
मकरन्द रह-रह ढर-ढर जाते हैं
सुखद शीतल कुंज छोड़ के मरु में मैं तो
बसूँगा कदापि नहीं, दीन हो सुनाते हैं
ब्रज के सिवाने में ही हुए ये अचल तन
देखते कातर नैन, नैन भर आते हैं ।

उधौ के वचन जैसे गिरे हों पहाड़ बन
आस के विटप पर । आँखें भर आती हैं
घृत की हो धार पड़े विरह-अनल पर
उसके ही ताप से विकल विललाती हैं
बसे हैं विदेश पिया कैसे री संदेश भेजूं
आते ही विचार, ये कराह रह जाती हैं
देह के दीया में जैसे जलते प्राणों की शिखा
कामनाएँ हो शलभ मन को पिराती हैं ।