कालिदास से लेकर अब तक
चाँद से इतनी बार ढका है
तुमने मेरा चेहरा
कि मैं ग्रहण की शिकार धरती-सी
जान ही न पाई अपना चेहरा...
उपमाएँ कितनी बेरहमी से
ख़त्म कर देती हैं उपमेय का सौन्दर्य..!
कालिदास से लेकर अब तक
चाँद से इतनी बार ढका है
तुमने मेरा चेहरा
कि मैं ग्रहण की शिकार धरती-सी
जान ही न पाई अपना चेहरा...
उपमाएँ कितनी बेरहमी से
ख़त्म कर देती हैं उपमेय का सौन्दर्य..!