कत्थई महुआ
नहीं है छाँह पत्ते की जिसे
लू की उमड़ती हुई लहरें
झेलता है
डालियों के बढ़े हुए कूचों में
अधखिली कलियाँ सँभाले
जान पड़ता है
संध्या की
रात की
शीतल पवन की
और तारों के चुहल आकाश की
आकुल प्रतीक्षा कर रहा है
जिन्हें अपने फूल का
उपहार देना है
उसे ।