जीवित मनुष्यों की तरह
उम्मीदें आयीं
और आँगन में बैठकर
धूप सेंकने लगीं
उस भ्रामरी दुपहर की गूँज में
धुनकी बज रही थी
झनझना रही थी पृथ्वी
समुद्रों से उठ रही थी रुई पानी की
उम्मीदों की बेहद चुप रहने वाली आँखें
बचपन और बुढ़ापे से एक साथ भर आयीं
गीली सोंधी मिट्टी की महक
फैल रही थी दूर तक।