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उम्मीद / प्रियंका पण्डित

तुम एक प्रतिद्वन्द्वी नहीं हो सकते
न यह जीवन कोई प्रतियोगिता
धधकते लोहे की चमकदार तीखी तलवार पर
मैं चल रही हूँ
जैसे वह उफनती नदियों को जोड़ता हुआ
कोई पुल हो
तुम मूक नहीं हो उन पंछियों की तरह
जो रोज़ आते हैं
दाना चुगते हैं और आकाश के रास्ते
बादलों में गुम हो जाते हैं
उफ़! मूक तो वे पंछी भी नहीं
जो समझते हैं मेरा प्यार
और वह मृदुल गीत
जो उस नाविक के शब्दों से
स्वच्छ निर्मल पनी की तरह बहता है
वह-- जो नदी के रास्ते
कुछ यात्रियों को उस पार ले जा रहा है

मैं किन्हीं प्रतीकों के ज़रिए कुछ कहना नहीं चाहती
चाहती हूँ गुलाब को गुलाब्ब कह सकूँ
(ठंडी और ख़तरनाक लड़ाईयाँ रोक दी जानी चाहिएँ)

सुनो! इस गोधूलि में
सांझ की घंटियों का संगीत
जिसमें बर्फ़ की तरह रात का अंधकार प्रविष्ट होगा

मैं घुटनों के बल खड़ी होकर
प्रार्थनाएँ करती हूँ
उन फ़रिश्तों के लिए
जो युद्धबन्दी की घोषणा लेकर
इस तरह आएँ
जैसे मद्धम-मद्धम सुनहरा सूरज
हमारे कमरेनुमा हृदयों में
उतर रहा हो...