मैं
नदिया सी बहती
मिलती, मिटती
पहुँची
उस ठौर
जहाँ
अनन्त मेरा
किनारा था
मांगा
उसने रंग मेरा
गति मेरी
मति मेरी
और
व्यक्तित्त्व का
विलोप
शतदल
पत्रों में
इन्द्रधनुषी रंग समेटे
चली मैं
ऊर्ध्वगामी
सहस्रार से मिलने
एकाकार हुई
रंग रहा न मेरा
गति हुई अद्श्य