उस रोज़ जब झींगुर दिन की आख़िरी अज़ान दे रहे थे
मकई के पत्तों पर टिड्डे कर रहे थे सन्ध्यावन्दन
मैंने तुम्हारे कान में फूँके थे दो शब्द
‘त्वाही शिनहयामी’
और तुमने धर दिए थे दो बोसे मेरी पउलियों पर, और
शिवाले की घण्टियाँ बज उठी थीं तभी
‘अना उहीबुकी’
तुम्हारी होंठ से झरे दो लफ़्ज़
मेरी रूह में ज़ज्ब हो गए
न मुझे अरबी आती थी
न तुम्हें संस्कृत
हम दोनो की ज़बाँ पर ही रचा-बसा था हिन्दी का स्वाद
फिर अपने ज़ज्बात और एहसास बयानी के लिए
हमने धर्मग्रन्थों की ही भाषा क्यों चुनी
मुझे नहीं मालूम
तुम्हारे होठ चूमने के बाद, उस रोज़
मेरे होठ हिन्दू थे, या कि हो गए मुसलमान
मुझे नहीं मालूम
मुझे नहीं मालूम कि
मेरी सांसों से गलबहियाँ करती तुम्हारी सांसे
उस रोज़
मेरी सांसों को क़लमा पढ़ा रही थीं, या कि ख़ुद पढ़ रही थी ऋचाएँ
मेरी सांसों से
मुझे नहीं मालूम
उस रोज़ तुम्हारी देह के नमक का भोग पाकर
तुम्हारी आदिम गन्ध का आचमन कर
सारी रात गोदती रही मैं, रामनामी
तुम्हारी देह में
मेरी पलकों को कुरान-ए-पाक़ सा चूमते हुए
तुम्हारी उँगुलियों ने, उस रोज़
मेरी देह पे जाने कितनी आयतें उकेरीं
और मिनार ओ गुम्बद को तराशकर
मेरी देह को तुमने अपना इबादतगाह बना लिया
अपनी सारी आस्था, अपना सारा विश्वास
तुमने मुझमें आरोपित कर दिया
मैंने तुम्हारी आस्था औ विश्वास धारण किया
मैंने तुम्हारा वजूद धारण किया
तुम्हें धारण करते हुए
काली कभी, तो कभी गौरी हुई मैं
सुनो, उस रोज़
पढ़ी थी जो दुआएँ, तुमने
मेरी देह के मस्जिद में
वो दुआएँ कुबूल हो गई
पर
जनन की हरीतिमा भय के भगवे से भयभीत है
कहीं मेरे गर्भ को गर्भगृह घोषित कर
मूर्ति न धर दें वे
सुनो, हमारे गँगोजमन सँगम को वो लोग वैतरिणी कह रहे
संस्कृतियां वैतरणियों से इतनी ख़ौफ़ज़दा क्यों हैं
देखो तो कितना गन्दा और ज़हरीला हो गया है गँगा का पानी
अम्मा कहती थी, नदियाँ जब हो जाएँ नालों में तब्दील
तो जानना संस्कृति का सँकट है
इस मुल्क़ की आबोहवा में अब अज़ान औ आरती की सँगत नहीं रही
सुनो तो हवाओं में हर ओर लहूलुहान चीखें और खूनी नारों का कोहराम
‘जय श्री राम’ का नारा लगाता गुज़रता है कोई
मेरे बग़ल से, जब
बाबरी मस्जिद सी सिहर उठती हूँ मैं ।