लंबी गैररूसी टाँगों पर खड़ा
बेमतलब मुस्करा रहा है ऊँट।
दोनों ओर लटक रहे हैं बाल
जैसे सौ बरस पुराने चोगे पर रूई।
पूरब की ओर मुँह किये
जरूरत से ज्यादा अनुभवी यात्री
पोंछते हैं ऊँट के बालों के नीचे से रेत
गेंहूँ का भूसा खिलाते हुए।
कंजूसी की है मरुभूमि के ईश्वर ने
इस राजसी कुबड़े प्राणी के प्रति -
संसार की सृष्टि से बची-खुची सामग्री से
उसने रचना की है ऊँट के शरीर की।
नथुनों पर लगा दिया ताला,
हृदय को भर दिया पीड़ा और महानता से।
तभी से पूरी वफादारी के साथ
बजती आ रही है उसके गले की घंटी।
चलता रहा वह लाल और काली रेत पर,
सामना करता रहा भले-बुरे मौसमों का।
आदी हो गया पराये बोझ का,
कुछ भी न बचाया बुढ़ापे के लिए।
अभ्यस्त हो गया है ऊँट का मन
मरुभूमि, बोझ और मार का -
पर, इस पर भी अच्छा है यह जीवन
किसी के तो काम आ रहा है!