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ऋतु वासन्ती / कुमार रवींद्र

ऋतु वासन्ती
और तुम्हारी
चितवन भी हो रही फागुनी
 
नई धूप का गीत लिख रहीं
सुखी हवाएँ
जाग रहीं टहनी-टहनी पर
कोंपल होने की इच्छाएँ
 
हमने भी तो
गई-रात ही
सखी, ग़ज़ल यह कही फागुनी
 
होठों ने भी पढ़ीं
फूल की हैं गाथाएँ
नेह-नदी में
आओ, हम ऋतु को नहलाएँ
 
देह-घाट पर
हमें मिली थी -
वही नदी फिर बही फागुनी
 
घूम रहा दिन
इन्द्रधनुष की पगडंडी पर
पत्तों पर वह आँक रहा सुख
आखर-आखर
 
कनखी-कनखी
तुमने सिरजीं -
छवियाँ सुख की वही फागुनी