वाल्मीकि रामायण का
उत्तर-काण्ड पढ़ रहा हूँ !
कथा कुछ इस प्रकार की है
सतयुग चल रहा है,
नैमिषारण्य क्षेत्र में पहुँच गए हैं राम
और ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में
पहली बार सुनते हैं रामायण !
अभिभूत हो जाते हैं राम
और आदेश देते हैं
अट्ठारह हज़ार स्वर्ण-मुद्राएँ दी जाएँ
इन बालकों को
जो तेज और प्रतिभा से ओतप्रोत हैं !
तुमुल-ध्वनि से
मण्डप गुंजरित कर देते हैं दर्शक
पर लव-कुश ठुकरा देते हैं
समस्त स्वर्ण-मुद्राएँ और गर्व से कहते हैं
रामायण अप्रतिम कृति है महर्षि वाल्मीकि की
जिसे गाया करते हैं
वनचारी बालक स्वेच्छा से
राजन! वन में व्यर्थ हो जाता है
स्वर्ण और शक्ति का दर्प
बस कन्द-मूल-फल ही काम आते हैं !
००
नैमिषारण्य में पहुँच चुके हैं
अट्ठासी हज़ार धर्मरक्षक
अक्षय-वट के पास सुशोभित है व्यासपीठ
अमृत बिखेर रही है सूत उग्रश्रवस की वाणी
जो लोमहर्षण के सुपुत्र हैं
और वेद व्यास के शिष्य !
वह उच्चरित कर रहे हैं
भागवत पुराण, हरिवंश पुराण, पद्मपुराण
फिर आरम्भ करते हैं महाभारत,
शौनक जी की उपस्थिति में
जिसमें कथा है वैशम्पायन से लेकर
कुरुराज जनमेजय तक
और संजय कुरुक्षेत्र का वृतान्त सुनाते हैं
अन्धे कुरुराज धृतराष्ट्र को !
कहानियों में कहानियाँ सुनकर
चकित हो जाते हैं
नैमिषारण्य में आए सभी ऋषि-मुनिगण
जो यहाँ आए हैं मोक्ष की कामना से !
अक्षयवट पर ठहर जाते हैं
शुकादि पक्षियों के समूह
शायद उन्होंने भी सुन रखा हो ऐसा ही कुछ,
मोक्ष मनुष्यों की ही कामना तो नहीं !
००
एकदा ऋषि-मुनि प्रार्थना करते हैं
प्रथम पुरुष ब्रह्मा से
धरती पर बताइए कोई ऐसा स्थान
जहाँ कलियुग का प्रभाव न हो
और पूजा-अर्चना से मिले वांछित फल !
बहुत विचार कर ब्रह्मा ने
अपने हृदय से उत्पन्न किया एक चक्र
और कहा –- तथास्तु,
जहाँ भी इस चक्र का केन्द्र-नेमि जाकर लेगा विश्राम
वही क्षेत्र हो जाएगा फलदायी और परम पवित्र !
और इस तरह प्रादुर्भाव हुआ
इस चौरासी कोस में फैले
सुरम्य वन नैमिषारण्य का
जहाँ अट्ठासी हज़ार ऋषियों ने
पूजा अर्चना की
और श्रुतियों का पावन श्रवण किया !
यहीं चक्र-तीर्थ के वलयित कुण्ड से फूटता है
पवित्र जल का स्रोत
जिसमें स्नान कर पवित्र हुए थे ऋषिगण
और जिसे धारण कर गोमती कहलाती है,
गोमती गंगा !
००
उसी नैमिषारण्य में,
उसी कलियुग में
मैं खोजने आया हूँ थोड़ी-सी शान्ति
खोजना चाहता हूँ उन ऋषियों के
जीर्ण-शीर्ण आवास
और ब्रह्मा का वह आशीर्वाद
जो कलियुग से रख सकता था
इस स्थल को अप्रभावित
मुझे याद आती है प्रसिद्ध सत्यनारायण कथा -–
व्यास उवाच -- एकदा नैमिषारण्ये ऋषयः शौनकादयः
प्रपच्छुर्मुनयः सर्वे सूतं पौराणिकं खलु
ऋषय उवाच -- व्रतेन तपसा किं वा प्राप्यते वांछितं फलम्
तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः कथयस्व महामुने
सूत उवाच -- नारदेनैव संपृष्टो भगवान्कमलापतिः
सुरर्षये यथैवाह तच्छृणुध्वं समाहिताः!<ref>श्री व्यासजी ने कहा- एक समय नैमिषारण्य तीर्थ में शौनक आदि हजारों ऋषि-मुनियों ने पुराणों के महाज्ञानी श्री सूतजी से पूछा- कि वह व्रत-तप कौन सा है, जिसके करने से मनवांछित फल प्राप्त होता है, हम सभी वह सुनना चाहते हैं, कृपा कर सुनाएँ। श्री सूतजी बोले- ऐसा ही प्रश्न नारद ने किया था जो कुछ भगवान कमलापति ने कहा था, आप सब उसे सुनिए।</ref>
पर यहाँ कुछ भी नहीं है ऐसा !
कलियुग के प्राणियों की बस्ती ने
लील लिया है समूचा क्षेत्र
स्थापित हो गए हैं कितने ही देवता
जो कमाई का साधन हैं हमारे लिए ।
चारों ओर लगे हैं गन्दगी के ढेर
सड़कों पर घूम रही हैं भूखी गायें,
देश के विभिन्न भागों से आए
मुझ जैसे सैलानी शायद निराश भी होंगे
इस आधुनिक नीमसार को देख कर !
क्या कलियुग में
एक और नया कलियुग रच लिया है हमने
जिसके लिए अब कुछ नहीं कर पाएँगे ब्रह्मा !
भारी मन से छोड़ता हूँ नीमसार
मैं जानता हूँ मेरा कलियुग अभिशप्त है
धूल, धुएँ और लिप्सा के संसार में जीने के लिए !
फिर भी – एकदा नैमिषारण्ये !