Last modified on 10 फ़रवरी 2011, at 17:37

एकात्म / दिनेश कुमार शुक्ल

मजे में दिन
गिलहरी बन
कुतरता
धूप की चादर

और रात
सीपी की तरह
खुलकर
एकाएक बन्द हो जाती

याद आती
सुबह की दमखम
कि जब छायाएं
सबसे ज्यादा
लम्बी हो के
धरती नाप लेना चाहती हैं

किन्तु यह दमखम
ज़रा-सी
फुलझड़ी बन
चार पल में
खत्म हो जाती

आग जलती रहे
इसके लिये
ईंधन चाहिये --

जब कि
अपने वर्ग से
हम पूर्ण एकाकार हो जाएं --
जैसे मीन
पानी में
जैसे शब्द
वाणी में

तभी संभव है
हमारी कल्पनाएं
धारणाएं
और कविताएं
कुछ कर दिखाएं।