एक स्त्री
सिर के बल खड़ी है
सृजन क्रिया में
कोई हज़ार वर्षों से
रेत की तरह उड़ा ले गई है हवा
उसके वक्ष को
भुजाओं को तोड़ दिया है
किसी आततायी के मुग्दर ने
नितम्ब की संधियों में
चीटियों ने बना लिया है अपना मकान
पाँवों पर दिख रहे हैं
पानी के दाग
एक स्त्री
हज़ार वर्षों से सूख रही है
सिर के बल
और उसके सिर में
दर्द भी नहीं हो रहा है
उसके चेहरे पर दिपदिपाते
सृजन-तप को देखकर लगता है
कि यूँ ही पत्थर नहीं बोलने लगता है
कविता