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एहसास / परवीन शाकिर

गहरे नीलम पानी में
फूल बदन लहरें थे
हवा के शबनम हाथ उन्हें छू जाते तो
पोर-पोर में खुनकी तैरने लगती थी
शोख़ सी कोई मौज शरारत करती तो
नाजुक जिस्मों नाजुक एहसासात के मालिक लोग
शाख़-ए-गुलाब की सूरत काँप उठते थे
ऊपर वस्त अप्रैल का सूरज
अंगारे बरसाता था
ऐसी तमाज़त
आँखें पिघल जाती थीं
लेकिन दिल का फूल खिला था
जिस्म के अन्दर रात की रानी महक रही थी
रूह मोहब्बत की बारिश में भीग रही थी
गीले रेत अगरचे धूप की हिद्दत पाकर
जिस्मों को झुलसाने लगी थी
फिर भी सब चेहरों पे लिखा था
रेत के हर ज़र्रे की चुभन में
फ़स्ल ए बहार के पहले गुलाबों की ठंडक है