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ऑफ़िस-तंत्र-1 / कुमार अनुपम

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वह नौकरी करता था और चाकरी तक करने को तैयार था
वह अपने घर के लिए भी तो लाता था शाम को तरकारी
और गैस-सिलिंडर और धोबी से प्रेस किये हुए कपड़े
मालिक के लिए भी वह यह सब करते हुए
कोफ़्त नहीं महसूस करना चाहता था
वह तो मालिक के जूते तक साफ़ करने को तैयार था
आख़िर अपने जूते भी तो करता था पॉलिश
और अपनी नन्ही परी के भी तो चमकाता था नन्हे जूते
तो वह उसे हर्ज़ नहीं मानना चाहता था

अपने ज़मीर तक से तसदीक में तय पाया था
कि वह ईमानदार है और रहेगा
भले ही उसे मुनाफ़े के लिए
मालिक को देनी पड़े अपनी आधी तनख़्वाह

बस वह बार-बार
अपनी नौकरी बचाना चाहता था
रोज़ सुबह तैयार होकर
घर से ऑफ़िस जाना चाहता था
कि लोग पाले रहें
उसे जेंटलमैन मानने का भ्रम भले ही पत्नी हँसती रहे विकट

मगर बार-बार
वह चाटुकारिता के अभिनय में हो जाता था असफल
और बात अटक जाती थी बड़ी आँत में कहीं
वह बेवजह हँसने की भरपूर कोशिश करता था
मटकता था बहुविधि
कई बार
तो खुद की भी खिल्ली उड़ाता था जोकरों की तरह
कि सलामत रहे परिवार की हँसी किसी भी कीमत
मगर व्यर्थ
मालिक की त्यौरियाँ तनी ही रहती थीं कमान की मानिन्द

तब वह
अधिकतम चतुराई से ठान लेता था
कि अपनी प्रतिभा, ईमानदारी, कर्मण्यता, विचार वगैरह
वह किसी पिछली सदी में रख आएगा रेहन
अगर मिले कुछ रुपये तो लाएगा उधार
जिससे कि पल सके उसका परिवार फिलहाल

(और वैसे भी इस सदी में जब
पण्य बड़ा हो पुण्य से
फिर ऐसे फालतू मूल्यों का क्या मोल)

तो वह
कुछ पाप करना चाहता था
और उसे पुण्य साबित करने
के नुस्खे तलाश करने में
कुछ सफल लोगों की तरह
सफलता पाना चाहता था

मगर करे क्या बेचारा
कि पिछली सदी में लौटने का द्वार
बन्द था मज़बूत
और वह
पूरी ईमानदारी से लौटना चाहता था घर और यह भी
कि नहीं लौटना चाहता था।