ओ, पिता!
तुम थक गये होगे।
चाहता हूँ
हाथ दाबूं
पांव दाबूं
और हर लूं
हर थकन
हर बोझ
असे से धरा
जो सर तुम्हारे
ओ, पिता!
सच-सच कहो!
तुम निरंतर पीली हुई जाती
फसल का बोझ ढोते
झुक गये होगे
ओ, पिता!
तुम थक गये होगे
शाम तुम जब लौटते हो
घर पसीने से नहाये
सोचता हूँ
रास्ते में पेड़ के नीचे
घड़ी भर को रुके होगे
क्यों नहीं मैं रास्ते का पेड़
जो देता तनिक आराम
थोड़ी छांव
तपती देह को
ओ, पिता!
सच-सच कहो
उस रास्ते के
पेड़ के नीचे
मुझे तुम याद करके
रुक गये होगे
ओ, पिता!
तुम थक गये होगे