वह बनी है कई पर्तों में
और जीती है अनेक जीवन
एक ही जन्म में।
हर बार खोलती है एक पर्त
और गढ़ती है नया रूप
सृष्टि की अपेक्षाओं के अनुरूप।
फिर हटा देती है उसे
मिटा देती है ख़ुद को;
नई होकर उभरती है
नई अपेक्षाओं के लिए।
उसकी हर पर्त में
होती हैं कई औरतें
कुछ नई तो कुछ पुरानी,
कुछ दुनियावी तो कुछ रूहानी।
कुछ उसे संबल देती हैं
तो कुछ उपहास करती हैं;
कुछ रोकती हैं, टोकती हैं
तो कुछ नया आकाश देती हैं।
वह विचरती है
तमाम पर्तों को सँभाले
इस धरती और अम्बर के बीच
इनकी धुरी को थामे हुये;
बार बार स्वयं को गढ़ती
और मिटाती हुई,
तमाम विसंगतियों से संघर्ष करती,
और पार पाती हुई।