Last modified on 16 जुलाई 2012, at 23:08

औरत / वर्तिका नन्दा

सड़क किनारे खड़ी औरत
कभी अकेली नहीं होती
उसका साया होती है मज़बूरी
आँचल के दुख
मन में छिपे बहुत से रहस्य

औरत अकेली होकर भी
कहीं अकेली नहीं होती

सींचे हुए परिवार की यादें
सूखे बहुत से पत्ते
छीने गए सुख
छीली गई आत्मा

सब कुछ होता है
ठगी गई औरत के साथ

औरत के पास
अपने बहुत से सच होते हैं
उसके नमक होते शरीर में घुले हुए

किसी से संवाद नहीं होता
समय के आगे थकी इस औरत का

सहारे की तलाश में
मरूस्थल में मटकी लिए चलती यह औरत
साँस भी डर कर लेती है
फिर भी

ज़रूरत के तमाम पलों में
अपनी होती है