Last modified on 28 मार्च 2021, at 15:52

कछुआ / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

नूनू रे, कछुआ देखने छैं
ओकरोॅ किस्सा सुनने छैं,
पानी में होय कछुआ न्यारोॅ
पोखर ओकरा छै बेशी प्यारोॅ।
अनचोके आवै ई धरती पर
ई निरदोस बहुत मत मारोॅ,
कारो एकदम कौऐ नांकी
बोलें तेॅ कहियोॅ छूनें छैं,
नूनू रे, कछुआ देखने छैं।

धीमा बहुते ऐकरोॅ चाल
सुस्ती के पूछोॅ नै हाल,
चढ़ी पीठ पर कŸाोॅ दाबोॅ
पिचकै नै छै ऐकरोॅ खाल।
ऐकरा पीठी पर उछली केॅ
ई बातोॅ के अजमैनें छैं?
नून रे, कछुआ देखने छैं।

लंबा जीवन जीयै कछुआ
खरगोशोॅ से जीतै कछुआ,
खतरा देखी के समनां में
अपनोॅ मुँह छिपावै कछुआ।
कवि विमल के ई कविता केॅ
रटनें नै तेॅ की करनें छै,
नूनू रे, कछुआ देखने छैं।